अर्जुन.. आज की कक्षा में
(प्रिय बच्चों ,
नाम से तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं महाभारत के एक प्रमुख पात्र अर्जुन की बात कर रही हूं जो यदि आज की कक्षा में पहुंच जाएँ तो वे कैसा महसूस करेंगे। इसी विषय पर आधारित है यह काल्पनिक प्रसंग।)
अर्जुन, पांच पांडवों में से एक, द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी ,स्वर्ग लोक में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य को कुछ अच्छी भेंट देने के उद्देश्य से एक सुंदर प्रतिमा बना रहे थे। तभी आगमन होता है देवर्षि नारद का, जो हमेशा मुस्कुराते हुए आते और तीनों लोकों की खबरें सुनाते। पर यह क्या, आज उनके चेहरे पर वह खिलखिलाती मुस्कान नहीं थी और चेहरा भी मुरझाया मुरझाया- सा था।
अर्जुन ने देखते ही उन्हें प्रणाम किया और पूछा, "क्या बात है मुनिवर, आज आप खुश नहीं दिख रहे हैं?"
नारद मुनि बोले , "नारायण, नारायण। अर्जुन, अपने गुरु के प्रति तुम्हारी यह श्रद्धा देखकर जहां मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, व पृ थ्वी वासियों का अपने शिक्षक के प्रति रवैया देख कर मन द्रवित हो जाता है।"
"एक तरफ तुम यहां गुरु द्रोणाचार्य को उपहार देने के लिए उनकी प्रतिमा बना रहे हो, वही दूसरी ओर धरती के नव युगीन छात्र अपने शिक्षकों का उपहास उड़ाने के लिए उनके हास्य चित्र बनाते हैं।उन्हें न जाने कैसे - कैसे नामों से चिढाते हैं। पीठ पीछे उनका तिरस्कार करने से भी नहीं चूकते। यह सब देखकर मेरा मन व्यथित हो जाता है। और तो और अपने अभिभावकों से भी अक्सर वे ऊँचे स्वर में ही बात करते हैं। अपने माता - पिता के प्रति भी उनके मन में कोई श्रद्धा भाव परिलक्षित नहीं होता। "
अर्जुन हक्का- बक्का होकर उनकी सारी बातें सुन रहे थे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
अर्जुन उनसे असहमति जताते हुए कहते हैं," देवर्षि विश्वास नहीं होता। कोई भी बालक अपने गुुरुजनों व माता- पिता के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार कदापि नहीं कर सकता। कदाचित समझने में आपसे कोई त्रुटि हो रही है।
इस प्रकार दोनों में एक लंबी बहस हुई। परंतु अर्जुन उनकी बातों से सहमत न हो सके। तब नारद जी ने अर्जुन के समक्ष एक शर्त रखी कि वह धरती लोक पर जाकर कक्षा में एक दिन बिताए।अर्जुन ने शर्त स्वीकार कर ली।
और शर्त अनुसार अगले दिन अर्जुन इंद्रप्रस्थ अर्थात आज की नई दिल्ली के एक विद्यालय में एक छात्र का रूप लेकर जा पहुंचे। उन्हें वहां का वातावरण एकदम ही अलग - सा लगा। सब कुछ बदला-बदला सा। उन्हें सब कुछ विचित्र - सा प्रतीत हो रहा था। फिर भी वे आगे बढ़े और एक छात्र से उन्होंने प्रश्न किया, "क्या तुम कक्षा में पहुंचने में मेरी सहायता कर सकते हो?" वह छात्र अर्जुन की भाषा सुनते ही हंसने लगा। और अपने बाकी मित्रों को बता बता कर अर्जुन का मजाक उड़ाने लगा।
अर्जुन सोच में पड़ गए कि उस बालक के हंसने का कारण क्या था!फिर कुछ विचारकर उन्होंने निश्चित किया कि क्यों न किसी बड़े व्यक्ति से ही कक्षा का मार्ग पूछ लिया जाए ! उनकी निगाह विद्यालय के पहरेदार पर पड़ी, जिसने उन्हें उनकी कक्षा का मार्ग बताया ।
अर्जुन यह सुनकर हैरान रह गए कि उनकी कक्षा एक बड़ी इमारत का एक बंद कमरा है न कि उनके गुरुकुल की भांति खुले वातावरण में किसी पेड़ की छांव तले।
जैसे - तैसे मार्ग ढूंढते हुए, वे एक कक्षा में पहुंचे। हिन्दी भाषा में बच्चों से बात करने की कोशिश करने लगे । तभी बातों-बातों में एक छात्र ने बताया कि विद्यालय में हिंदी भाषा में वार्तालाप करना मना है।
यह जानकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि अपने देश में हिंदी भाषा को महत्व नहीं दिया जा रहा है और तो और संस्कृत जैसी देव भाषा का एक शब्द भी अधिकतर लोग नहीं जानते। वे यह सब सोच ही रहे थे कि कक्षा में गुरु जी का आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें साष्टांग दंडवत किया। जिसे देखकर सारे छात्रा जोर-जोर से हंसने लगे और अर्जुन का उपहास उड़ाने लगे। गुरूजी ने सबको डांट कर बिठाया और अर्जुन को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा। उसके उपरांत उन्होंने सभी बच्चों से गृह कार्य के बारे में पूछा। जिन बच्चों ने गृह कार्य नहीं किया था, उन्हें दंड दिया। परंतु उनमें से एक छात्र उनसे वाद-विवाद करने लगा। यह सब देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही कि कोई छात्र अपने गुरु से इस भांति उद्दंडतापूर्वक व्यवहार कैसे कर सकता है! इस प्रकार प्रतिपल उनका आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने देखा कि शिक्षक पूरा समय खड़े रहें। उनके लिए कक्षा में न कोई कुर्सी थी ना ही बैठने के लिए कोई स्थान बनाया गया था। इस भाँति पूरा दिन बीत गया। उन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया, जो उन्हें बहुत खटक रहा था।
विद्यालय का समय समाप्त होते ही सभी बच्चे अपना बस्ता लेकर अपने माता - पिता के साथ घर रवाना हो गए , कई बच्चे वाहनों में बैठकर अपने घर चले गए। उसी समय नारद मुनि भी उन्हें लेने आ पहुँचे ।
स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हुए नारद जी ने जब उनसे उनका अनुभव पूछा तो उन्होंने कहा," मुनिवर! आपसे क्या कहूं, आज जो कुछ भी मैंने अनुभव किया है उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी न था। आप ठीक कह रहे थे। आज कोई छात्र अपने शिक्षक का अभिवादन करना जरूरी समझता है और ना ही सम्मान करता है।"
नारद मुनि ने कहा, "हां अर्जुन! तुम सही कह रहे हो! इस देश की शिक्षा व्यवस्था में बहुत सी कमियां है साथ ही साथ ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं जो देश की संस्कृति के लिए कलंक बनती जा रही है!"
तुम्हारे अनुसार क्या किया जाना चाहिए? "
अर्जुन ने प्रत्युत्तर में कहा," मुनिश्रेष्ठ! गीता ज्ञान।"
" गीता ज्ञान!", नारद जी ने चकित होकर कहा।
अर्जुन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, "जी मुनिवर! सर्वप्रथम सभी विद्यालयों में गीता का ज्ञान अनिवार्य कर देना चाहिए। एकमात्र गीता ज्ञान से ही व्यवहार संबंधी सभी समस्याएं अपने आप सुलझ सकती हैं।"
" शायद तुम ठीक कह रहे हो।"
" परंतु एक बात मुझे इस विद्यालय में बहुत अच्छी लगी ।"
"कौन सी बात अर्जुन? ", आश्चर्य जताते हुए नारद मुनि ने पूछा।
अर्जुन ने कहा, "वह यह कि छात्र कई नई भाषाएँ सीख रहे हैं जिससे उनका ज्ञान बढ़ रहा है । परंतु इसका एक खराब पहलू यह है कि वे अपनी हिंदी भाषा को भुलाते जा रहे हैं, जिससे धीरे - धीरे भारत वर्ष की संस्कृति भी कमजोर होती जा रही है।"
" तुम ठीक कहते हो, अर्जुन! पर इसका कोई तो उपाय होगा", नारद मुनि ने हामी भरते हुए पूछा ।
अर्जुन बोले," उपाय तो है मुनिवर।पर यह सरल कदापि नहीं है। "
" तुम कहो तो। "
यदि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो सबसे पहले हिंदी भाषा को अंग्रेजी भाषा जितना गौरव प्रदान करना जरूरी है। अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा कि भारत की संस्कृति पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी और फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा! "
" पर यह सब तो भारत वासी ही कर सकते हैं। हम और तुम कुछ नहीं कर सकते। आखिर उन्हें ही तो अपना भविष्य तय करना है।"
" लो स्वर्ग भी आ गया। अब तुम जाओ और चित्र पूरा करो ताकि गुरु द्रोणाचार्य को अपनी भेंट प्रदान कर सको। "
अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें नमन किया और नारद मुनि "नारायण, नारायण" कहते हुए वहां से प्रस्थान कर गए।
सुधा सिंह 📝
(प्रिय बच्चों ,
नाम से तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं महाभारत के एक प्रमुख पात्र अर्जुन की बात कर रही हूं जो यदि आज की कक्षा में पहुंच जाएँ तो वे कैसा महसूस करेंगे। इसी विषय पर आधारित है यह काल्पनिक प्रसंग।)
अर्जुन, पांच पांडवों में से एक, द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी ,स्वर्ग लोक में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य को कुछ अच्छी भेंट देने के उद्देश्य से एक सुंदर प्रतिमा बना रहे थे। तभी आगमन होता है देवर्षि नारद का, जो हमेशा मुस्कुराते हुए आते और तीनों लोकों की खबरें सुनाते। पर यह क्या, आज उनके चेहरे पर वह खिलखिलाती मुस्कान नहीं थी और चेहरा भी मुरझाया मुरझाया- सा था।
अर्जुन ने देखते ही उन्हें प्रणाम किया और पूछा, "क्या बात है मुनिवर, आज आप खुश नहीं दिख रहे हैं?"
नारद मुनि बोले , "नारायण, नारायण। अर्जुन, अपने गुरु के प्रति तुम्हारी यह श्रद्धा देखकर जहां मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, व पृ थ्वी वासियों का अपने शिक्षक के प्रति रवैया देख कर मन द्रवित हो जाता है।"
"एक तरफ तुम यहां गुरु द्रोणाचार्य को उपहार देने के लिए उनकी प्रतिमा बना रहे हो, वही दूसरी ओर धरती के नव युगीन छात्र अपने शिक्षकों का उपहास उड़ाने के लिए उनके हास्य चित्र बनाते हैं।उन्हें न जाने कैसे - कैसे नामों से चिढाते हैं। पीठ पीछे उनका तिरस्कार करने से भी नहीं चूकते। यह सब देखकर मेरा मन व्यथित हो जाता है। और तो और अपने अभिभावकों से भी अक्सर वे ऊँचे स्वर में ही बात करते हैं। अपने माता - पिता के प्रति भी उनके मन में कोई श्रद्धा भाव परिलक्षित नहीं होता। "
अर्जुन हक्का- बक्का होकर उनकी सारी बातें सुन रहे थे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
अर्जुन उनसे असहमति जताते हुए कहते हैं," देवर्षि विश्वास नहीं होता। कोई भी बालक अपने गुुरुजनों व माता- पिता के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार कदापि नहीं कर सकता। कदाचित समझने में आपसे कोई त्रुटि हो रही है।
इस प्रकार दोनों में एक लंबी बहस हुई। परंतु अर्जुन उनकी बातों से सहमत न हो सके। तब नारद जी ने अर्जुन के समक्ष एक शर्त रखी कि वह धरती लोक पर जाकर कक्षा में एक दिन बिताए।अर्जुन ने शर्त स्वीकार कर ली।
और शर्त अनुसार अगले दिन अर्जुन इंद्रप्रस्थ अर्थात आज की नई दिल्ली के एक विद्यालय में एक छात्र का रूप लेकर जा पहुंचे। उन्हें वहां का वातावरण एकदम ही अलग - सा लगा। सब कुछ बदला-बदला सा। उन्हें सब कुछ विचित्र - सा प्रतीत हो रहा था। फिर भी वे आगे बढ़े और एक छात्र से उन्होंने प्रश्न किया, "क्या तुम कक्षा में पहुंचने में मेरी सहायता कर सकते हो?" वह छात्र अर्जुन की भाषा सुनते ही हंसने लगा। और अपने बाकी मित्रों को बता बता कर अर्जुन का मजाक उड़ाने लगा।
अर्जुन सोच में पड़ गए कि उस बालक के हंसने का कारण क्या था!फिर कुछ विचारकर उन्होंने निश्चित किया कि क्यों न किसी बड़े व्यक्ति से ही कक्षा का मार्ग पूछ लिया जाए ! उनकी निगाह विद्यालय के पहरेदार पर पड़ी, जिसने उन्हें उनकी कक्षा का मार्ग बताया ।
अर्जुन यह सुनकर हैरान रह गए कि उनकी कक्षा एक बड़ी इमारत का एक बंद कमरा है न कि उनके गुरुकुल की भांति खुले वातावरण में किसी पेड़ की छांव तले।
जैसे - तैसे मार्ग ढूंढते हुए, वे एक कक्षा में पहुंचे। हिन्दी भाषा में बच्चों से बात करने की कोशिश करने लगे । तभी बातों-बातों में एक छात्र ने बताया कि विद्यालय में हिंदी भाषा में वार्तालाप करना मना है।
यह जानकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि अपने देश में हिंदी भाषा को महत्व नहीं दिया जा रहा है और तो और संस्कृत जैसी देव भाषा का एक शब्द भी अधिकतर लोग नहीं जानते। वे यह सब सोच ही रहे थे कि कक्षा में गुरु जी का आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें साष्टांग दंडवत किया। जिसे देखकर सारे छात्रा जोर-जोर से हंसने लगे और अर्जुन का उपहास उड़ाने लगे। गुरूजी ने सबको डांट कर बिठाया और अर्जुन को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा। उसके उपरांत उन्होंने सभी बच्चों से गृह कार्य के बारे में पूछा। जिन बच्चों ने गृह कार्य नहीं किया था, उन्हें दंड दिया। परंतु उनमें से एक छात्र उनसे वाद-विवाद करने लगा। यह सब देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही कि कोई छात्र अपने गुरु से इस भांति उद्दंडतापूर्वक व्यवहार कैसे कर सकता है! इस प्रकार प्रतिपल उनका आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने देखा कि शिक्षक पूरा समय खड़े रहें। उनके लिए कक्षा में न कोई कुर्सी थी ना ही बैठने के लिए कोई स्थान बनाया गया था। इस भाँति पूरा दिन बीत गया। उन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया, जो उन्हें बहुत खटक रहा था।
विद्यालय का समय समाप्त होते ही सभी बच्चे अपना बस्ता लेकर अपने माता - पिता के साथ घर रवाना हो गए , कई बच्चे वाहनों में बैठकर अपने घर चले गए। उसी समय नारद मुनि भी उन्हें लेने आ पहुँचे ।
स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हुए नारद जी ने जब उनसे उनका अनुभव पूछा तो उन्होंने कहा," मुनिवर! आपसे क्या कहूं, आज जो कुछ भी मैंने अनुभव किया है उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी न था। आप ठीक कह रहे थे। आज कोई छात्र अपने शिक्षक का अभिवादन करना जरूरी समझता है और ना ही सम्मान करता है।"
नारद मुनि ने कहा, "हां अर्जुन! तुम सही कह रहे हो! इस देश की शिक्षा व्यवस्था में बहुत सी कमियां है साथ ही साथ ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं जो देश की संस्कृति के लिए कलंक बनती जा रही है!"
तुम्हारे अनुसार क्या किया जाना चाहिए? "
अर्जुन ने प्रत्युत्तर में कहा," मुनिश्रेष्ठ! गीता ज्ञान।"
" गीता ज्ञान!", नारद जी ने चकित होकर कहा।
अर्जुन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, "जी मुनिवर! सर्वप्रथम सभी विद्यालयों में गीता का ज्ञान अनिवार्य कर देना चाहिए। एकमात्र गीता ज्ञान से ही व्यवहार संबंधी सभी समस्याएं अपने आप सुलझ सकती हैं।"
" शायद तुम ठीक कह रहे हो।"
" परंतु एक बात मुझे इस विद्यालय में बहुत अच्छी लगी ।"
"कौन सी बात अर्जुन? ", आश्चर्य जताते हुए नारद मुनि ने पूछा।
अर्जुन ने कहा, "वह यह कि छात्र कई नई भाषाएँ सीख रहे हैं जिससे उनका ज्ञान बढ़ रहा है । परंतु इसका एक खराब पहलू यह है कि वे अपनी हिंदी भाषा को भुलाते जा रहे हैं, जिससे धीरे - धीरे भारत वर्ष की संस्कृति भी कमजोर होती जा रही है।"
" तुम ठीक कहते हो, अर्जुन! पर इसका कोई तो उपाय होगा", नारद मुनि ने हामी भरते हुए पूछा ।
अर्जुन बोले," उपाय तो है मुनिवर।पर यह सरल कदापि नहीं है। "
" तुम कहो तो। "
यदि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो सबसे पहले हिंदी भाषा को अंग्रेजी भाषा जितना गौरव प्रदान करना जरूरी है। अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा कि भारत की संस्कृति पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी और फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा! "
" पर यह सब तो भारत वासी ही कर सकते हैं। हम और तुम कुछ नहीं कर सकते। आखिर उन्हें ही तो अपना भविष्य तय करना है।"
" लो स्वर्ग भी आ गया। अब तुम जाओ और चित्र पूरा करो ताकि गुरु द्रोणाचार्य को अपनी भेंट प्रदान कर सको। "
अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें नमन किया और नारद मुनि "नारायण, नारायण" कहते हुए वहां से प्रस्थान कर गए।
सुधा सिंह 📝
No comments:
Post a Comment
पाठक की टिप्पणियाँ किसी भी रचनाकार के लिए पोषक तत्व के समान होती हैं .अतः आपसे अनुरोध है कि अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से मुझे वंचित न रखें।