Thursday, February 20, 2020

मक्खी और मधुमक्खी.. बाल कविता

मक्खी 

मक्खी की मधुमक्खी से
हो गई भोर में भेंट।
जल्दी खूब थी मक्खी को
और हो गई थी व‍ह लेट।।

मक्खी बोली, " हे मधुप,
रोको न मुझे,
बड़े जोर की भूख लगी है,
कर नहीं सकती वेट!
कूडे वाला आ जाएगा,
सारा कूड़ा ले जाएगा!
फिर मैं भूखी रह जाऊँगी,
मेरा नहीं भरेगा पेट!

मक्खी की सुनकर बातें,
 मधुमक्षिका बोल उठी  ,
" मत घबराओ मक्खी तुम,
मैंने एक बगिया है देखी-

जहाँ रंग बिरंगे फूल खिले,
हरे, गुलाबी, नीले, पीले!

तुम भी रस पान वहाँ करना,
नहीं स्वाद मिले तो फिर कहना!
अहा,
चम्पा की महक के क्या कहने,
मुँह से पानी लगता बहने!

गुड़हल का रंग लुभाता है!
गेंदा भी बड़ा सुहाता है!

पारिजात, और कनेर भी,
स्वाद बड़ा ही देते हैं।
सूरजमुखी और सदाबहार,
मन मोह हमारा लेते हैं।
चल माखी हम उस देश चलें,
जहाँ भाँति भाँति के पुहुप खिले!

सुनकर बातें मधुमक्खी की
घृणा हो गई मक्खी को।
 बोली, "सुन मधुप ध्यान से बात मेरी,
यह सब मैं बिलकुल ना खाती।
मैं कूडे में हूँ सुख पाती।।

अपना ही राग लगी गाने!
खाने का स्वाद तू क्या जाने !

चल तुझे आज बतलाती हूँ,
खाना तुझको सिखलाती हूँ।।
व‍ह देख नाली में मल है जो,
चल स्वाद चखें, स्वादिष्ट है वो।।

तू देख रहा उस बालक को,
रिस रहा है पस जिसके तन से!
वही मुझको अच्छा लगता है,
पीती हूँ खूब बड़े मन से!
उस स्वाद के आगे सबकुछ फेल
तेरा मेरा है नहीं  मेल!

सुनकर बातें मक्षिका की
मधुमक्खी ने बिचकाया मुँह!
बोली, " तुम गंदा ही तो खाती हो
छीः  ऊपर से इतराती हो!
कभी शहद बनाकर भी चख लो!
अरे थोड़ी सी मेहनत कर लो!

य़ह सुन मक्खी को आया क्रोध,
 बोली," तुझको  कुछ नहीं बोध।।
 सुन बात मुमाखी बतलाऊँ,
तेरे झांसे में, मैं न आऊँ!
इतनी मेहनत मैं करूँ क्यों,
जब मुफ्त में सबकुछ पाती हूँ!
अरे पका - पकाया खाती हूँ,
और सुख का जीवन जीती हूँ!

 यह सुन मधु मक्खी दंग हुई,
सोचा मैं व्यर्थ में तंग हुई।।
मक्खी तो आखिर मक्खी है,
गंदगी पे ही तो बैठेगी।।

छोड़ के मक्खी का परिवेश,
उड़ गई मधुमक्खी अपने देश।।



Saturday, February 15, 2020

छत्रपति शिवाजी.... हिन्दी पोवाड़ा




जी जी जी जी........
राजे ऐसा सत्ताधारी, राजे ऐसा सत्ताधारी
जी जी जी जी........

धन्य हो गई धरा राष्ट्र की, गूँज उठी थी शिवऩेरी 
पशु पक्षी भी लगे नाचने, पुलकित थे सब नर नारी 

जन्म लिया जब छत्रपति ने बजने लगी थी रणभेरी 
लाल महल में गूंज उठी थी राजे की किलकारी

चहक उठी तब भारत भूमि, छंट गई रात अँधेरी 
जीजाऊ ने तब भड़काई स्वराज की चिनगारी   

अस्त्र शस्त्र, शास्त्रों की ज्ञाता, थी वीरांगना नारी 
ज्ञान देती थी शिवराजे को सबका बारी बारी 

अग्नि स्वराज की लगी धधकने, उठा ली जिम्मेदारी
सब के दिल में राज किया, था ऐसा
सत्ताधारी

शिवराया सत्ताधारी, राजे ऐसा सत्ताधारी
जी जी जी जी........


Friday, February 7, 2020

माँ बतलाओ....बाल गीत


माँ बतलाओ , चंदा मामा
घर पर क्यों नहीं आते हैं !

राजू मामा, चिंटू मामा 
सब अपने घर आते हैं !
रक्षा बंधन पर सब तुमसे
राखी भी बँधवाते हैं 

खेल -खेलकर संग मेरे  
सब मेरा मन बहलाते हैं
रानी बहना से भी वे सब
कितना लाड लड़ाते हैं l

फिर बोलो माँ चंदा मामा 
क्यों अपने घर नहीं आते हैं 

माँ, इसका कुछ राज़ तो खोलो ...
क्यों हमसे रूठे वे बोलो ....
चौथ पूर्णिमा ,जल तुम देती 
तुम उनकी पूजा भी करती
फिर भी  वो  इतराते हैं ...

बोलो माँ, क्यों चंदा मामा 
घर अपने नहीं आते हैं ..

सुन मेरे मुन्ने ,बात बताऊँ...
तुमसे न कोई राज छुपाऊँ...
चंदा मामा व्यस्त बड़े हैं
उनके सिर कई काम पड़े हैं...

मेरे तुम्हारे सब के लिए ही
दूर देश वे जाते हैं
जेब में उजियारे को भरकर
लौट के फिर वे आते हैं
रात में मुन्ने धवल उजाला
 हम उनसे ही पाते हैं
दिन में सूरज खूब जलाता
 वे इसीलिए छिप जाते हैं


माँ समझा अब बात पते की
तभी तो थक  वे जाते हैं
और कभी दिखते हैं दुर्बल
कभी फूल के कुप्पा होते हैं


हम इतवार मनाते जैसे
वे प्रतिपदा मनाते हैं
शनिवार हम छुट्टी करते 
अमाँ में वे सोने जाते हैं।

माँ  , परहित में चंदा मामा
कितना कुछ सह जाते हैं
ठंडी, गर्मी, बारिश में भी
अपना फर्ज निभाते हैं।

हाँ जाना क्यों चंदा मामा 
अपने घर नहीं आते हैं ...


©®सर्वाधिकार सुरक्षित
सुधा सिंह 'व्याघ्र'





Saturday, February 1, 2020

जिजीविषा



नव रूप, रंग, आस
हरित मखमली गात
नव जिजीविषा के साथ
मैं प्रस्फुटित हूँ आज

नव सूर्य उम्मीदों का
है संग संग मेरे सदा
लड़ना है हर झंझा से
खानी नहीं मुझे मात

शुचि निर्मल तुहिन तन
मधुरिम परिवेश से निज बंधन
यही ऐषणा हिय की अहो
बढ़ता रहूँ दिन रात

परमार्थ ही है लक्ष्य
नहीं खिन्न , जो बनूँ भक्ष्य
जीवन मिला सुनहरा
उसे क्यों गवाऊँ तात्

निज धर्म और कर्म से
कर ना सकूँ प्रतिघात
लड़ता रहूँ परिवेश से
सो प्रस्फुटित हूँ आज











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