Sunday, February 10, 2019

हे मातु शारदे... (गेय वंदना)


हे मातु शारदे....

तव चरणन में वंदन मेरा
हे मातु शारदे वर दे.. वर दे..

हे श्वेतांबरा, हे पद्मासिनी ,
उर-अन्तर मेरा प्रीत से भर दे..

हे वागीश्वरी, हे वीणा वादिनी
जिव्हा को मधुरिम स्वर दे..

हे मृगनयनी, पावन करणी
सद्गुण शाली इह जग कर दे..

हे हंसारूढ़ी, हे बुद्धिदायिनी,
ज्ञानचक्षु प्रकाशित कर दे...

हे धवलवर्णा, हे चंद्रवदिनी
कर तिमिर दूर,अभय वर दे...

हे विशालाक्षी, हे शतरूपा
दे आशीष, मेरा जीवन तर दे...

सुधा सिंह 📝

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Tuesday, February 5, 2019

उदा देवी पासी

( उदा देवी पासी :एक ऐसी वीरांगना जिसने अंग्रेजों के सामने जिसने कभी घुटने नहीं टेके।परंतु इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई।  )


सुनो सुनो जी एक कहानी
उदा देवी पासी की
थी सेना की चीफ़ कमांडर
हजरत महल की सेना की

धूल चटा दी अंग्रेजों को
ऐसी वह मरदानी थी
हार नहीं मानेगी बिलकुल
मन में उसने ठानी थी

आजादी का बिगुल बजा जब
लहू उनका भी उबल उठा तब
अंग्रेजों ने करी चढ़ाई
सेना लखनऊ तक बढ़ आई

दाँव पे लगा मान सम्मान
युद्ध छिड़ गया घमासान

चली गोलियां दोनों तरफा
बंदूकें भी बोल रहीं थी
उदा की हिम्मत के आगे 
गोरी सेना खेत रही थी

सिर पर कफन बाँध कर निकली
वो ऐसी बलिदानी  थी
जब तक सांसों में स्पन्दन था
हार न उसने मानी थी

सुनो सुनाऊँ उनकी कहानी
वह तो उदा पासी थी
थी सेना की चीफ़ कमांडर
हजरत महल की सेना की.

Monday, February 4, 2019

उद्यम ही प्रगति की जननी है...

उद्यम ही प्रगति की जननी है... (निबंध)



एक पुरानी कहावत हैं परिश्रम ही सफलता की कुंजी है अर्थात् परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी असफलता का मुँह नहीं देखता ।वह अपने जीवन में एक न एक दिन कामयाबी के सर्वोच्च शिखर पर पहुचता है। हर व्यक्ति की कुछ इच्छाएं आवश्यकता होती है। वह सुख शांति की कामना करता है। दुनिया में नाम कमाने की इच्छा रखता है, किंतु केवल कल्पना करने से ही कार्य सिद्ध नहीं हो जाते ।
अपनी कल्पना को एक मूर्त रूप देकर, उसपर अमल करने से ही वह कल्पना साकार रूप लेती है और व्यक्ति मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। शेर को जंगल का राजा माना जाता है। परंतु यदि वह सोता रहे तो उसके मुख में पशु स्वयं ही प्रवेश नहीं करता उसे भी अपनी भुभुक्षा शांत करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। उसी प्रकार केवल मन की इच्छा से काम सिद्ध नहीं होते उनके लिए परिश्रम करना पड़ता है।कठिन परिश्रम ही भाग्य को जगाता है । किया गया परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता । एक न एक दिन वह अपना रंग अवश्य दिखाता है।

विश्व के जितने भी प्रख्यात व्यक्ति हुए हैं सभी ने अपने अपने क्षेत्र में परिश्रम किया तभी दुनिया में अपना नाम ऊँचा कर सके हैं । मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर का नाम दुनिया का बच्चा बच्चा जानता है । उद्योग जगत की बात करें तो जमशेदजी टाटा और धीरूभाई अंबानी के उद्यम का लोहा पूरी दुनिया मानती है। जमशेदजी टाटा को तो भारतीय उद्योग का जनक माना जाता है। फिल्म जगत के मशहूर सितारे शाहरूख खान का नाम दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में गिना जाता है। इन लोगों ने दिन रात परिश्रम करके ही अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है। शाहरुख खान ने टीवी के एक साक्षात्कार के दौरान बताया था कि खाना खाने के लिए दाल में अतिरिक्त पानी डाला जाता था जिससे घर के सभी सदस्यों का पेट भर सके। वे एक निम्न मध्यमवर्गी परिवार में जन्मे थे । यह उनकी दृढ़ इच्छा और परिश्रम ही था जिसने उन्हें ऊँचाइयों के शिखर पर पहुँचाया । निरंतर अभ्यास और मेहनत के बल पर ही स्वर कोकिला कही जाने लता मंगेशकर की मीठी आवाज़ ने पूरे विश्व को अपना कायल कर दिया है। हिंदी के महान कवि और साहित्यकार सोहनलाल द्विवेदी जी ने ठीक ही लिखा है-

"मेहनत उसकी कभी बेकार नहीं होती ।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।"
यदि मनुष्य का निश्चय दृढ़ है और उसने ठान लिया है कि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही छोड़ेगा तो वह कभी असफल नहीं होता ।इसी दृढ़ निश्चय और परिश्रम के बल पर ही आज मनुष्य ने चाँद पर अपना झंडा  गाड़ दिया है परंतु सफलता कभी किसी को आसानी से प्राप्त नहीं होती । सफलता की राह में कई बाधाएँ और मुश्किलें आती हैं और उन बाधाओं से लड़ना भी आसान नहीं होता इसलिए मनुष्य को धैर्य से काम लेना चाहिए । अधीरता मनुष्य को असफलता की ओर खींचती है।अतः जो मनुष्य धैर्यपूर्वक निरंतर परिश्रम करता है । सफलता उसके कदम जरूर चूमती है।

अकर्मण्य व्यक्त ही केवल भाग्य के सहारे सब कुछ प्राप्त करना चाहता है। बहुत ही कम भाग्यशाली व्यक्ति हैं जिन्हें अपने पूर्वजों की संपत्ति प्राप्त होती है परंतु यदि अपने पूर्वजों से प्राप्त की हुई इस संपत्ति का वे सही उपयोग नहीं करते व बिना कुछ किए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं तो उस अर्जित संपत्ति को भी क्षण में गँवा देते हैं। कहते हैं कि कोई भी राष्ट्र तभी विकास कर सकता है जब उस राष्ट्र के नागरिक उद्यमी हों। मानचित्र पर जापान एक छोटा सा देश है परंतु उसका लोहा पूरा विश्व मानता है।

यह कहना गलत न होगा कि परिश्रम का महत्व परिश्रम करने वाले से अधिक कोई नहीं जानता। अतः जो मनुष्य सकारात्मक होकर अपने निर्धारित लक्ष्य को साधने में निरंतर प्रयासरत रहता है सफलता स्वयं उसके कदमों में आकर बिछ जाती है । परिश्रम के सहारे मनुष्य किसी भी प्रकार की कठिनाई को मार्ग से दूर हटा देता है। वहीं एक आलसी और अकर्मण्य मनुष्य कभी अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि परिश्रम ही जीवन की सफलता का रहस्य है। कठिन परिश्रम ही बेहतर जीवन का निर्माण करता है।

सुधा सिंह 

अर्जुन... आज की कक्षा में

अर्जुन.. आज की कक्षा में



(प्रिय बच्चों ,
नाम से तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं महाभारत के एक प्रमुख पात्र अर्जुन की बात कर रही हूं जो यदि आज की कक्षा में पहुंच जाएँ तो वे कैसा महसूस करेंगे। इसी विषय पर आधारित है यह काल्पनिक प्रसंग।)


अर्जुन, पांच पांडवों में से एक, द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी ,स्वर्ग लोक में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य को कुछ अच्छी भेंट देने के उद्देश्य से एक सुंदर प्रतिमा बना रहे थे। तभी आगमन होता है देवर्षि नारद का, जो हमेशा मुस्कुराते हुए आते और तीनों लोकों की खबरें सुनाते। पर यह क्या, आज उनके चेहरे पर वह खिलखिलाती मुस्कान नहीं थी और चेहरा भी मुरझाया मुरझाया- सा था।

अर्जुन ने देखते ही उन्हें प्रणाम किया और पूछा, "क्या बात है मुनिवर, आज आप खुश नहीं दिख रहे हैं?"

 नारद मुनि बोले , "नारायण, नारायण। अर्जुन, अपने गुरु के प्रति तुम्हारी यह श्रद्धा देखकर जहां मेरा मन प्रसन्न हो जाता है, व पृ थ्वी वासियों का अपने शिक्षक के प्रति रवैया देख कर मन द्रवित हो जाता है।"

"एक तरफ तुम यहां गुरु द्रोणाचार्य को उपहार देने के लिए उनकी प्रतिमा बना रहे हो, वही दूसरी ओर धरती के नव युगीन छात्र अपने शिक्षकों का उपहास उड़ाने के लिए उनके हास्य चित्र बनाते हैं।उन्हें न जाने कैसे - कैसे नामों से चिढाते हैं। पीठ पीछे उनका तिरस्कार करने से भी नहीं चूकते। यह सब देखकर मेरा मन व्यथित हो जाता है। और तो और अपने अभिभावकों से भी अक्सर वे ऊँचे स्वर में ही बात करते हैं। अपने माता - पिता के प्रति भी उनके मन में कोई श्रद्धा भाव परिलक्षित नहीं होता। "

अर्जुन हक्का- बक्का होकर उनकी सारी बातें सुन रहे थे। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

अर्जुन उनसे असहमति जताते हुए कहते हैं," देवर्षि विश्वास नहीं होता। कोई भी बालक अपने गुुरुजनों व माता- पिता के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार कदापि नहीं कर सकता। कदाचित समझने में आपसे कोई त्रुटि हो रही है।

इस प्रकार दोनों में एक लंबी बहस हुई। परंतु अर्जुन उनकी बातों से सहमत न हो सके। तब नारद जी ने अर्जुन के समक्ष एक शर्त रखी कि वह धरती लोक पर जाकर कक्षा में एक दिन बिताए।अर्जुन ने शर्त स्वीकार कर ली।

और शर्त अनुसार अगले दिन अर्जुन इंद्रप्रस्थ अर्थात आज की नई दिल्ली के एक विद्यालय में एक छात्र का रूप लेकर जा पहुंचे। उन्हें वहां का वातावरण एकदम ही अलग - सा लगा। सब कुछ बदला-बदला सा। उन्हें सब कुछ विचित्र - सा प्रतीत हो रहा था। फिर भी वे आगे बढ़े और एक छात्र से उन्होंने प्रश्न किया, "क्या तुम कक्षा में पहुंचने में मेरी सहायता कर सकते हो?" वह छात्र अर्जुन की भाषा सुनते ही हंसने लगा। और अपने बाकी मित्रों को बता बता कर अर्जुन का मजाक उड़ाने लगा।

अर्जुन सोच में पड़ गए कि उस बालक के हंसने का कारण क्या था!फिर कुछ विचारकर उन्होंने निश्चित किया कि क्यों न किसी बड़े व्यक्ति से ही कक्षा का मार्ग पूछ लिया जाए ! उनकी निगाह विद्यालय के पहरेदार पर पड़ी, जिसने उन्हें उनकी कक्षा का मार्ग बताया ।

अर्जुन यह सुनकर हैरान रह गए कि उनकी कक्षा एक बड़ी इमारत का एक बंद कमरा है न कि उनके गुरुकुल की भांति खुले वातावरण में किसी पेड़ की छांव तले।

जैसे - तैसे मार्ग ढूंढते हुए, वे एक कक्षा में पहुंचे। हिन्दी भाषा में बच्चों से बात करने की कोशिश करने लगे । तभी बातों-बातों में एक छात्र ने बताया कि विद्यालय में हिंदी भाषा में वार्तालाप करना मना है।

यह जानकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि अपने देश में हिंदी भाषा को महत्व नहीं दिया जा रहा है और तो और संस्कृत जैसी देव भाषा का एक शब्द भी अधिकतर लोग नहीं जानते। वे यह सब सोच ही रहे थे कि कक्षा में गुरु जी का आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें साष्टांग दंडवत किया। जिसे देखकर सारे छात्रा जोर-जोर से हंसने लगे और अर्जुन का उपहास उड़ाने लगे। गुरूजी ने सबको डांट कर बिठाया और अर्जुन को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा। उसके उपरांत उन्होंने सभी बच्चों से गृह कार्य के बारे में पूछा। जिन बच्चों ने गृह कार्य नहीं किया था, उन्हें दंड दिया। परंतु उनमें से एक छात्र उनसे वाद-विवाद करने लगा। यह सब देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही कि कोई छात्र अपने गुरु से इस भांति उद्दंडतापूर्वक व्यवहार कैसे कर सकता है! इस प्रकार प्रतिपल उनका आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने देखा कि शिक्षक पूरा समय खड़े रहें। उनके लिए कक्षा में न कोई कुर्सी थी ना ही बैठने के लिए कोई स्थान बनाया गया था। इस भाँति पूरा दिन बीत गया। उन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया, जो उन्हें बहुत खटक रहा था।

विद्यालय का समय समाप्त होते ही सभी बच्चे अपना बस्ता लेकर अपने माता - पिता के साथ घर रवाना हो गए , कई बच्चे वाहनों में बैठकर अपने घर चले गए। उसी समय नारद मुनि भी उन्हें लेने आ पहुँचे ।

 स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हुए नारद जी ने जब उनसे उनका अनुभव पूछा तो उन्होंने कहा," मुनिवर! आपसे क्या कहूं, आज जो कुछ भी मैंने अनुभव किया है उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी न था। आप ठीक कह रहे थे। आज कोई छात्र अपने शिक्षक का अभिवादन करना जरूरी समझता है और ना ही सम्मान करता है।"

नारद मुनि ने कहा, "हां अर्जुन! तुम सही कह रहे हो! इस देश की शिक्षा व्यवस्था में बहुत सी कमियां है साथ ही साथ ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं जो देश की संस्कृति के लिए कलंक बनती जा रही है!"

तुम्हारे अनुसार क्या किया जाना चाहिए? "

अर्जुन ने प्रत्युत्तर में कहा," मुनिश्रेष्ठ! गीता ज्ञान।"

" गीता ज्ञान!", नारद जी ने चकित होकर कहा।

अर्जुन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, "जी मुनिवर! सर्वप्रथम सभी विद्यालयों में गीता का ज्ञान अनिवार्य कर देना चाहिए। एकमात्र गीता ज्ञान से ही व्यवहार संबंधी सभी समस्याएं अपने आप सुलझ सकती हैं।"

" शायद तुम ठीक कह रहे हो।"

" परंतु एक बात मुझे इस विद्यालय में बहुत अच्छी लगी ।"

"कौन सी बात अर्जुन? ", आश्चर्य जताते हुए नारद मुनि ने पूछा।

अर्जुन ने कहा, "वह यह कि छात्र कई नई भाषाएँ सीख रहे हैं जिससे उनका ज्ञान बढ़ रहा है । परंतु इसका एक खराब पहलू यह है कि वे अपनी हिंदी भाषा को भुलाते जा रहे हैं, जिससे धीरे - धीरे भारत वर्ष की संस्कृति भी कमजोर होती जा रही है।"

" तुम ठीक कहते हो, अर्जुन! पर इसका कोई तो उपाय होगा", नारद मुनि ने हामी भरते हुए पूछा ।

अर्जुन बोले," उपाय तो है मुनिवर।पर यह सरल कदापि नहीं है। "

" तुम कहो तो। "

यदि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो सबसे पहले हिंदी भाषा को अंग्रेजी भाषा जितना गौरव प्रदान करना जरूरी है। अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा कि भारत की संस्कृति पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी और फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा! "

" पर यह सब तो भारत वासी ही कर सकते हैं। हम और तुम कुछ नहीं कर सकते। आखिर उन्हें ही तो अपना भविष्य तय करना है।"

" लो स्वर्ग भी आ गया। अब तुम जाओ और चित्र पूरा करो ताकि गुरु द्रोणाचार्य को अपनी भेंट प्रदान कर सको। "

अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें नमन किया और नारद मुनि "नारायण, नारायण" कहते हुए वहां से प्रस्थान कर गए।


सुधा सिंह 📝

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