होती अमूर्त कल्पना मूर्त।
वृक्षों की शाखों में
फूलों, पत्तियों
और फलों की जगह
लगा करते नल।
और झरता उसमें से
जीवनदायी जल।।
मिटती तृष्णा जीव जगत की....
अकालग्रासत फटती वसुंधरा की...
सभी जीवों जंतुओं की...
खग, मृग, नन्हें छौनों की...
फिर चहुँ ओर
न त्राहि त्राहि मचती।
न शुष्क मृदा
इतनी बदसूरत तस्वीर रचती।।
हर सजीव तृष्णा से तर जाता।
खुशियों से धरती का आँचल लहराता।
काश ऐसा हो जाता......
सुधा सिंह ✍️
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteशुक्रिया अभिलाषा जी 🙏 🙏
ReplyDeleteबेहतरीन रचना 👌👌👌
ReplyDeleteशुक्रिया नीतू 🙏🙏
Deleteसुंदर रचना ।
ReplyDeleteपल्लवी मैम 🙏 🙏 🙏
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/05/2019 की बुलेटिन, " पैरंट्स टीचर मीटिंग - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया शिवम जी 🙏 🙏
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया सखी कामिनी 🙏 🙏
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14 -07-2019) को "ज़ालिमों से पुकार मत करना" (चर्चा अंक- 3396) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
बहुत खूब
ReplyDeleteशुक्रिया ओंकार जी 🙏 🙏 🙏
Deleteबहुत बहुत सार्थक सृजन भावों का उत्कृष्ट प्रदर्शन।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया दी 🙏 🙏
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