Tuesday, November 22, 2022

बदलो... कि बदलाव है ज़रूरी :नुक्कड नाटक

नुक्कड नाटक : 
विषय : सामाजिक समुत्थानशक्ति (COMMUNITY RESILIENCE)
[कुछ कठिन या बुरा होने के बाद फिर से खुश, सफल आदि होने की क्षमता, प्रतिरोधक्षमता, लचीलापन] 

बदलो …….. कि बदलाव है जरूरी

अवधि :10 मिनट 
पात्र :
1:आशा
2:गाँव का सरपंच/मुखिया (आशा का पिता )
3:आशा की दाई
4:फूल चंद :सरपंच का नौकर
5:एक दर्शक
6:कोरस : (कई सारे)


कोरस :
सुनो सुनो भई ….सुनो सुनो
सुनो सुनो भई ….सुनो सुनो
रामपुरा की कथा सुनो
कैसे बदली रीत पुरानी
आओ सुनाए तुम्हे कहानी
सुनो सुनो भई ….सुनो सुनो
सुनो सुनो भई ….सुनो सुनो
रामपुरा की कथा सुनो

एक दर्शक :
रामपुरा की कथा?
कोरस :
हाँ रामपुरा की कथा..
दर्शक :
तुमने बोला रीत पुरानी
है क्या इसमें राजा रानी
कोरस :
नहीं नहीं भई नहीं.... नहीं
ना राजा ना रानी;
छोड़ पुरानी परिपाटी को
परिवर्तन की क़ीमत जानी
दर्शक :
परिवर्तन की क़ीमत जानी?
कोरस:
हाँ हाँ परिवर्तन की क़ीमत जानी
रामपुरा की यही कहानी

सूत्रधार :दृश्य 1:

दाई : (दुःखी होकर भागती हुई आती है। ) हुकुम , हमने बड़ी कोशिश की पर हम बाई -सा को बचा नहीं पाए।

मुखिया : (दुःखी होकर बैठ जाता है। फिर अचानक खुश होकर उठता है )अच्छा ….पर मुझे मेरा लल्ला तो दिखाओ।

दाई : लल्ला नहीं हुआ है हुकुम , बाई-सा ने एक बेटी को जन्म दिया है ;

मुखिया : क्याऽऽ ? बेटीऽऽ ?
(ग्रामीण आपस से फुसफुसाते हैं…..);

ग्रामीण 1:ये क्या अनर्थ हो गया? मुखिया जी के यहाँ बेटी हुई है!

ग्रामीण 2:बेटी? अब क्या होगा?
मुखिया जी तो ना जाने कितने वर्षों से बेटे की चाह में तड़प रहे हैं।

स्त्री 1:कहीं इसका हाल भी कालूमल की बेटी की तरह न हो जाए. कहीं उसे भी…

स्त्री 2:हाँ.. तुम तो जानती ही हो जिज्जी… ..मुखिया जी को बेटियों के नाम से भी नफरत है।

स्त्री 1: न जाने हम जनानियों की किस्मत भगवान किस कलम से लिखता है। हाय रे फूटी किस्मत!!!!!!! .(दुःखी होकर माथा पीट लेती है। )

मुखिया :दाई इसे ले जाकर किसी नदी में प्रवाहित कर दो। पिंड छूटे इस बला से…

स्त्री 1: (आपस में बात करते हुए); देखो मैंने कहा था न कि कालूमल की तरह ही…

स्त्री 2:हाँ… जिज्जी सही कहा आपणे।

दाई : हुकुम आप इसे एक बार देख तो लीजिए बड़ी फूटरीऽऽऽ.बिटिया है आपणी ।

मुखिया :दाई (गुस्से से) मैंने कहा न …इसे मेरी नज़रों के सामने से हटा दो।मेरे लिए ये किसी दुर्भाग्य से कम नहीं …जो पैदा होते ही अपनी माँ को खा गई वो तो मुझे बर्बाद ही कर देगी।……. एक तो सूखा…. ऊपर से इतनी महँगाई.. इसका खर्च कहाँ से उठाएंगे। फिर चार साल बाद इसके व्याह रो खर्चो… कहाँ से आवेंगे इसके दहेज के लिए लाखों रुपये…

दाई : लेकिन हुकुम केवल एक बार आप इस मासूम को प्यार भरी नज़रों से देख तो लीजिए … शायद…. 
.
मुखिया : मैंने कह दिया ना कि नहीं देखना ….जाओ इसको निपटा दो... (इधर उधर नजर घुमाते हुए) ये 
फूलचंद कहाँ गया?  ….फूलचंद...फूलचंद... (गुस्से से आवाज लगाता है। )

(फूलचंद भागता हुआ आता है और मुखिया के सामने मस्तक नीचे करके खड़ा हो जाता है)
फूलचंद: जी हुकुम….

मुखिया : इस कलंकिनी के मामा को बुलाकर उसे दे दो और कह देना कि अगर उन्हें इसे सम्हालना है तो सम्हालें…. नहीं तो इसे अनाथाश्रम में डाल दे … यह आज से मेरे लिए मर गई और ध्यान रखें कि यह मेरे नज़रों के सामने वापस कभी न आए।

फूलचंद: जी हुकुम …जैसा आप कहें .
(फूलचंद दाई के हाथ से उस बालिका को लेकर चला जाता है...) 

कोरस :1
ये नियति का खेल है या दुर्भाग्य बेटियों का…
क्या लड़का होता तब भी उसे ऐसे ही फेंक दिया जाता….
ये सोच कब बदलेगी???
कब बदलेगी??
कब बदलेगी??

सूत्रधार :
क्या लगता है आपको ? यह केवल मुखिया के घर का दृश्य है????
नहीं नहीं… यह तो रामपुरा के घर घर की कहानी है। 

कोरस : बेटियां... बेटियाँ... बेटियां !
बेटों की तरह ही रो -रोकर 
जन्म लेती हैंं बेटियाँ
बेटों की तरह ही 
शैतानी करती है बेटियाँ
यूँ तो लल्ला और लल्ली में 
फर्क़ तो नहीं
फिर उन दोनों के बीच भेदभाव
क्या है सही?

दृश्य 2:

23 साल बाद
सूत्रधार :
मामा मामी ने आशा को
पढ़ाया लिखाया और काबिल बनाया। 
उसकी हर इच्छा को
अपने सिर आखों पर बिठाया। 
लेकिन अपने बापू को मिलने की जिस ख्वाहिश को उसने था हमेशा से दबाया। 
आज उनसे मिलने की कामना को उसने अपने मन में था समाया। 

कोरस :चली, चली, भई चली, चली…
आशा लेकर आस चली!
बचपन में बिछुड़ी जो गली…
आशा उसकी राह चली!

रामपुरा गाँव का दृश्य…

(आशा अपने गांव पहुँचती है.…लोग अपने कामों में जुटे हैं।चारों तरफ़ प्राकृतिक सुंदरता दिखाई देती है। )..

आशा : यह गाँव दिखता है बड़ा ही निराला
पर माँ-सा और बापू-सा ने न जाने क्यूँ
इसके साथ मेरा फासला बढ़ा डाला!!!
(एक तरफ़ दाई अपने काम में व्यस्त है तभी उसपर आशा की नजर पड़ती है. )

आशा :दाई जी …दाई जी ….मैं आशा । पहचाना मुझे ?

दाई : आशा!!! छोरी!!! तू यहां के कर रही है ? यह जगह थारे वास्ते ठीक नहीं ….क्यूँ आई है वापस????

आशा : मैं आप सब से मिलने वास्ते आई हूँ …मने अपने बापू-सा से मिलना है. 

दाई जी : क्या ?... अपने बापू से ?.....
आशा ये ना हो सके है छोरी… . चली जा तू वापस …… अगर था रे बापू सा को पता चलेगा कि तू वापस आई है तो घोर अनर्थ हो जावेगा ….

आशा : नहीं.. दाई जी ऐसा नहीं होगा

दाई जी : तू चल म्हारे साथ पंचायत में फिर पता चलेगा थारे को. 

दृश्य:3
दाई : उधर देख थारे बापू - सा …… इस गांव के मुखिया हैं …कोई ग़म्भीर समस्या है…… उसी की चर्चा चल रही है ….मौका रहते तू निकल जा बेटी…..

आशा :क्यों आपको नहीं पता क्या समस्या है???

दाई :नहीं छोरी…. इस गाँव में पंचायत के मामले में और मर्दों के बीच में बोलने की आजादी हम जनानियों को कहाँ?किन्तु इतना जरूर पता है कि समस्या बहुत बड़ी है. शायद पूरे गाँव पर कोई मुसीबत आई से..

आशा : दाई जी..जनानियाँ मर्दों से किसी मामले कम तो नहीं है.. फिर इस गाँव में ही ऐसा क्यों..; रानी लक्ष्मी बाई ने तो पूरे देश को बचाने लिए हाथ में तलवार ले ली थी. तो क्या इस गांव की स्त्रियां अपने गाँव को मुसीबत से नहीं बचा सकती हैं…

दाई : बात तो थारी सही है छोरी… लेकिन.. तू तो जानती है न कि…

आशा :दाई सा… मैं सब जानती हूँ लेकिन इतनी बड़ी मुसीबत में अगर आप लोग अब भी चूल्हे चौके से बाहर नहीं निकलोगे तो बाद में माथा पीटने और रोने के अलावा कुछ नहीं बचेगा…
(आशा की बात सुनकर दाई की आँखों में भी उम्मीद की किरण जाग उठी)

दाई :आशा तो क्या मैं गाँव की बाकी स्त्रियों को भी बुला लाऊँ…

आशा: हाँ हाँ दाई सा मैं भी आपसे यही कहना चाह रही थी… जाइए उन्हें. भी बुला लाइये.
(दाई गाँव की कई अन्य महिलाओं को बुलाती है)

दाई :ओ मुन्नी की माँ… ओह रनियाँ, कमली… ओ…..
(सभी स्त्रियाँ दाई के पास आती हैं)

मुन्नी : क्या हुआ दाई सा? 
रनियाँ : क्या हुआ दाई - सा क्यों बुलाया मने.
(सभी एक एक करके दाई से उन्हें बुलाने का कारण पूछती हैं और दाई  उन्हें सब खुलकर बताती है और सब को मनाने समझाने में सफल होती है. सब पंचायत में पहुँचती हैं)

दृश्य4:

(सब दुखी मन से बैठे हैं) 
ग्रामीण 1: हम उन्हें नहीं देंगे हमारी जमीन... मुखिया जी चाहे हमारी जान ही क्यों न चली जाए.

पंचायत में उपस्थित सभी पुरुष : हाँ हाँ बिलकुल नहीं  देंगे..... बिलकुल नहीं देंगे.... 
मुखिया जी आप ही कुछ उपाय निकालिये... वे हमे यहां से बेदखल कर देंगे तो हम कहाँ जाएंगे? 
मुखिया : कुछ तो उपाय निकालना ही पड़ेगा. हम अपनी ज़मीनें नहीं देंगे. 

ग्रामीण : मुखिया जी; ….हम क्या करेंगे ….वे हमारी जमीनें हड़प लेंगे और यहां फैक्ट्री बनाएंगे; सोचिए कितना प्रदूषण फैलेगा!!!!!

मुखिया : हाँ वे बड़े प्रभावशाली लोग हैं ….पर हम भी क्या करें उन्होंने अधिकांश गाव वालों को ज्यादा पैसे का लालच देकर  बहुत कम क़ीमत पर काग़ज़ों पर अंगूठे का निशान ले लिया है.... हमारा वकील भी उनके हाथों बिक गया है. अब तो भगवान ही मालिक है।

आशा : मुखिया जी.. यदि इजाजत हो तो कुछ कहूँ….
ग्रामीण 1 :(चौंकता हुआ) ये छोरी कौन है? और ये गाँव की जनानियाँ…. यहां पंचायत में मर्दों के बीच क्या करने आई हैं !
दूसरा ग्रामीण : ए छोरी तू कौन है?? और यहां के कर रही है . तुझे ना पता के…; कि पंचायत मे जनानियों का आना मना है.

आशा : मुखिया जी;  मैं आपकी मदद करना चाहती हूं. इसलिए यहां आई हूँ.

ग्रामीण 2: तू ?!... ( हंसते हुए) तू हमारी क्या मदद करेगी…. जा रसोई सम्हाल… ये पंचायत वन्चायत सब मर्दों का काम है.

(एक ग्रामीण भागता हुआ पंचायत के बीच आता है)
ग्रामीण 3:(हांफते हुए) मुखिया जी वो बिल्डर अपने ढेर सारे गुंडों के साथ इधर ही आ रहा है हमें डर है कि कहीं वह हमे इसी समय इस बस्ती से निकाल ना दे;

आशा :मुखिया जी मैं कह रही हूं ना मेरी बात एक बार सुन कर देखिए अगर आपको गलत लगे; तो मैं नहीं बोलूंगी.. 

ग्रामीण 2: ए छोरी तू क्या कर पावेगी? ये सब थारे बस का ना से……

आशा :मैं जानती हूं कि मैं आप सबके सामने बहुत छोटी हूं किंतु अगर एक बार आप मेरी बात ध्यान से सुन ले तो शायद उपाय निकाल आए…

ग्रामीण 3: ठीक है मुखिया जी एक बार हम इसकी बात भी सुन लेते हैं अब तक तो हम नहीं कुछ कर पाए. हो सकता है इसके उपाय में ही कुछ दम हो
देख छोरी जी अगर तेरी बात में दम ना हुआ तो तू दोबारा नहीं बोलेगी

आशा :ठीक है परंतु एक बार आप मेरी बात सुन लीजिए

मुखिया :चल बोल क्या बोल रही है….

आशा :मुखिया जी मैं एक वकील हूँ.
सभी ग्रामीण :( आश्चर्य से एक दूसरे की ओर देखने लगते हैं) ये छोरी वकील है……???

आशा : हाँ…. और मैं जानती हूं कि अभी इतनी जल्दी तो कुछ नहीं किया जा सकता. लेकिन एक एक उपाय है मेरे पास…. सत्याग्रह….

मुखिया :सत्याग्रह मतलब धरना

आशा :हां मुखिया जी धरना….
बस हमें उन्हें गांव में आने से रोकना होगा इसलिए हमें गांव की सीमा पर ही धरना देना होगा….. चाहे स्त्री हो हो या पुरुष हो….. बूढ़ा हो या जवान सभी लोगों को.

मुखिया :उससे क्या होगा??? और बाकी सब तो ठीक है.. पर वहां जनानियों का के काम???

आशा :मुखिया जी… औरतें होंगी तो हमारी ताकत और बढ़ेगी… उससे हमारी बात पुलिस और प्रशासन तक पहुंचेगी.
मुखिया: नहीं नहीं औरतें नहीं. औरतें घर की रसोई में ही अच्छी लगती हैं….. यूँ.. यू बीच बाजार सबके सामने औरतें..... नहीं छोरी ये ना हो सके है…

आशा :मुखिया जी औरते चांद तक पहुंच गई हैं और आप आज भीवही अटके हैं! 

मुखिया :(गुस्से से) छोरी …

ग्रामीण :इन सबसे कुछ ना होने का छोरी.. पुलिस भी तो उन्हीं लोगों की जेब में है…. हमने कितनी बार पुलिस से बात की किंतु वे हमें धमकी देकर वहां से भगा देते हैं और एक भी बार हमारी शिकायत नहीं लिखी.

आशा :मुखिया जी जमाना बदल गया है. अब तो इंटरनेट का जमाना है पुलिस हमारी बात सुनेगी .. . और प्रशासन को भी हम पर ध्यान देगा.
बस अब बिना देर किए आपलोग अभी गाँव की सीमा की ओर बढ़िए और मैं आप सबकी वीडियो बनाकर सोशल मीडिया के जरिए वायरल करती हूँ... . साथ ही साथ इस केस को मैं कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी करती हूँ. देखते हैं हमारी बात उनके कानों तक कैसे नहीं पहुँचती??

ग्रामीण :हाँ ये छोरी ठीक कह रही है. मने इसकी बात मे दम लागे से मुखिया जी.
मुखिया :ठीक है जैसा तुम सबने ठीक लागे…

ग्रामीण :हाँ. हाँ चलो रे सब

कोरस :
उजड़ा था चमन जो कलियों से
अब फिर से बहारें आयेंगी
मंझधार मे गोते खाती थी
नैया भी नारे लग जाएगी!

ग्रामीण : ओ बींदडी... तू भी चल धरना देण वास्ते... 
एक स्त्री :मैं बापू - सा???
हाँ ,,,,,,,,,,अब लागे से के हमारे दुख के दिन गए. 

ग्रामीण : छोरी होके देखो कितनी अच्छी सलाह दी है इसने... 

दूसरी स्त्री :हाँ हाँ राजू के बापू.. 

मुखिया  :(अपनी पगड़ी उतारते हुए आशा के आगे झुकता है ) छोरी  तूने आज हम सबको बहुत बड़ी मुसीबत से बचा लिया.. मैं थारा ये एहसान कदी न उतार पाऊँगा. 

आशा :(आशा अपने पिता को अपने पाँवों में झुकने से रोकती है और सहसा उसके मुँह से निकलता है। ) नहीं.. नहीं. बापू - सा... 

मुखिया :( चौंकते हुए) बापू सा!!!! ... छोरी.... ये तू क्या... 
दाई :हाँ.. हाँ हुकुम... ये आशा आपणी ही छोरी है.. 
(मुखिया की आँखों से आँसू छलक उठते हैं.) 
मुखिया : (दाई और आशा की ओर देखते हुए) 
दाई... आशा.... आज तुमने मेरी आँखें खोल दीं...

मुखिया :(सभी ग्रामीणों से) आज से मैं शपथ लेता हूं कि गाँव की किसी भी बेटी बहू के साथ अब कोई अत्याचार नहीं होने दूँगा... गाँव की किसी ल़डकी को पढ़ने लिखने की कोई मनाही नहीं होगी .. और  उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होने दूँगा. क्योंकि छोरा और छोरी में कोई अन्तर ना से.. 

सभी ग्रामीण:( सहमति में सिर हिलाते हुए)  हाँ हाँ मुखिया जी  हम भी शपथ लेते हैं अपनी छोरियों को पढ़ा लिखाकर आशा जैसी काबिल बनाएंगे। 

आशा: बापू सा हमारे पास ज्यादा समय नहीं है..इसके पहले कि बिल्डर और उसके गुंडे यहाँ पहुँचे... हमें गाँव की सीमा पर पहुंचना होगा.. 

मुखिया :हाँ हाँ.. आशा बिटिया ठीक कह रही है.. चलो सब.... 
(सभी गाँव की सीमा की ओर बढ़ते हैं और आशा उनके वीडियो बनाते हुए आगे बढ़ती है)


सभी ग्रामीण:( गाते हुए आगे बढ़ते हैं ) 
बढ़े चलो बढ़े चलो
एका बढ़ते ही जावे.. "बढ़े चलो..... 
घनघोर अँधेरा छाये.... बढ़े चलो... 
कोई हमसे जीत ना पावे.." "" ";
चले चलो , चले चलो
मिट जाए जो टकराए , चले चलो


कोरस :
चलो चलें भई.. चलो चलें
दूजे नगर दूजे गाँव चले
उनको भी य़ह कथा सुनाए
परिपाटी को छोड़ पुरानी
अपनी नई प्रथा चलाएं 
एका की ताकत बतलाएं
नए रंग नव ढंग लिए हम
जीर्ण विचारों को हम छोड़े
कहो कहो भई…. कहो कहो
कैसी लगी यह कथा कहो! 

  समाप्त  

सर्वाधिकार सुरक्षित
सुधा सिंह ✒️


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