क्रोध |
क्रोध कहो, या कह लो गुस्सा
या फिर इसे कहो तुम रोष
नहीं किसी भी और का,
इसमें है बस अपना दोष
कहो कभी हम गुस्से से
कुछ भी हासिल कर पाए हैं?
जब भी क्रोध ने हमको घेरा
तब - तब हम पछताए हैं!!!
क्यों कर हम खुद पर ही बोलो
नहीं नियंत्रण कर नियंत्रण कर पाते?
क्यों दूजे के हाथों में हम
चाबी गुस्स्स्से की दे आते!
जीवन में कटुता य़ह लाता
सुंदरता चेहरे की खाता
य़ह मन को अपने बहकाता
अंत में केवल है पछताता।
तो क्रोध को छोड़ो य़ह दुश्मन है
अपनी काया तो चंदन है
क्रोध का सांप न लिपटे जिसको
ऐसी काया को वन्दन है।
ऐसे ही मन को वंदन है।।
रचनाकार - सुधा सिंह
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२१ -११ -२०१९ ) को "यह विनाश की लीला"(चर्चा अंक-३५५६) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत सुंदर और सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अनु जी।🙏🙏
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