मक्खी |
मक्खी की मधुमक्खी से
हो गई भोर में भेंट।
जल्दी खूब थी मक्खी को
और हो गई थी वह लेट।।
मक्खी बोली, " हे मधुप,
रोको न मुझे,
बड़े जोर की भूख लगी है,
कर नहीं सकती वेट!
कूडे वाला आ जाएगा,
सारा कूड़ा ले जाएगा!
फिर मैं भूखी रह जाऊँगी,
मेरा नहीं भरेगा पेट!
मक्खी की सुनकर बातें,
मधुमक्षिका बोल उठी ,
" मत घबराओ मक्खी तुम,
मैंने एक बगिया है देखी-
जहाँ रंग बिरंगे फूल खिले,
हरे, गुलाबी, नीले, पीले!
तुम भी रस पान वहाँ करना,
नहीं स्वाद मिले तो फिर कहना!
अहा,
चम्पा की महक के क्या कहने,
मुँह से पानी लगता बहने!
गुड़हल का रंग लुभाता है!
गेंदा भी बड़ा सुहाता है!
पारिजात, और कनेर भी,
स्वाद बड़ा ही देते हैं।
सूरजमुखी और सदाबहार,
मन मोह हमारा लेते हैं।
चल माखी हम उस देश चलें,
जहाँ भाँति भाँति के पुहुप खिले!
सुनकर बातें मधुमक्खी की
घृणा हो गई मक्खी को।
बोली, "सुन मधुप ध्यान से बात मेरी,
यह सब मैं बिलकुल ना खाती।
मैं कूडे में हूँ सुख पाती।।
अपना ही राग लगी गाने!
खाने का स्वाद तू क्या जाने !
चल तुझे आज बतलाती हूँ,
खाना तुझको सिखलाती हूँ।।
वह देख नाली में मल है जो,
चल स्वाद चखें, स्वादिष्ट है वो।।
तू देख रहा उस बालक को,
रिस रहा है पस जिसके तन से!
वही मुझको अच्छा लगता है,
पीती हूँ खूब बड़े मन से!
उस स्वाद के आगे सबकुछ फेल
तेरा मेरा है नहीं मेल!
सुनकर बातें मक्षिका की
मधुमक्खी ने बिचकाया मुँह!
बोली, " तुम गंदा ही तो खाती हो
छीः ऊपर से इतराती हो!
कभी शहद बनाकर भी चख लो!
अरे थोड़ी सी मेहनत कर लो!
य़ह सुन मक्खी को आया क्रोध,
बोली," तुझको कुछ नहीं बोध।।
सुन बात मुमाखी बतलाऊँ,
तेरे झांसे में, मैं न आऊँ!
इतनी मेहनत मैं करूँ क्यों,
जब मुफ्त में सबकुछ पाती हूँ!
अरे पका - पकाया खाती हूँ,
और सुख का जीवन जीती हूँ!
यह सुन मधु मक्खी दंग हुई,
सोचा मैं व्यर्थ में तंग हुई।।
मक्खी तो आखिर मक्खी है,
गंदगी पे ही तो बैठेगी।।
छोड़ के मक्खी का परिवेश,
उड़ गई मधुमक्खी अपने देश।।